1.
उम्मीद रखना मेरी फ़ितरत है
टूटती है, फ़िर जोड़ लेता हूं
ज़ायका-ए-हिज्र बदल लेता हूं
2.
कभी अन्जाने में यूं ही ’चांद’ कहा था तुमको
न था इल्म कि इतनी लम्बी अमावस होगी
टुकड़े चांद के चुभते हैं गीली आन्खों में
3.
तेरे तग़ाफ़ुल की मैं कोइ शिकायत नही करता
तूने दुनिया की रिवाज़ों से ज़ुदा कुछ ना किया
सर पे हो धूप तो साये भी रूठ जाते हैं
4.
तुमने जाते वक़्त एक बार मुड़ के देखा था
ये मेरा वहम है या सच – मुझे याद नहीं
नज़रें गीली थीं, नज़ारे भी धुंधले-धुंधले थे